Monday, September 14, 2020

हिंदी दिवस (लघुकथा/व्यंग्य)



भादों का महीना है । सुबह के आठ बजे रहे हैं ।  तीन दिन बाद आज सूरज ने दर्शन दिया है । हल्की हवा के साथ काले बादल सफ़र कर रहे हैं , जैसे अब कुछ दिनों के लिए अलविदा कह देना चाहते हों । प्रोफेसर मेहता बिस्तर में बैठे-बैठे कुछ लिख रहे हैं । बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं , पत्नी किचिन में बर्तन जमा रही है ।
तभी हॉल में रखा मोबाइल बज उठता है । 

प्रोफेसर मेहता ने पत्नी से कहा , “ देखना जरा किसका कॉल है ? ”
“मैं किचिन में हूँ , जरा आप ही रिसीव कर लो जी । ” पत्नी ने बहुत ही आग्रह भाव से कहा ।

प्रोफेसर साहब ने कॉल रिसीव किया । 

“यूनिवर्सिटी से कॉल था , मुझे जल्दी निकलना होगा ।”
“आज इतनी जल्दी क्यों ?”
“यूनिवर्सिटी ने एक प्रोग्राम रखा है , और प्रोग्राम के प्रेपेरेशन की सारी रेस्पोंसबिलिटी मुझ पर है ।”
“कैसा प्रोग्राम??”
“आज हिंदी दिवस है । ”
“अच्छा ! पर आपने तो मुझे बताया तक नहीं ।”
“अरे महारानी ! यह तुम्हारे काम का नहीं है , तुम तो बस जल्दी ब्रेकफास्ट रेडी कर दो ।”
“ठीक है ! जबतक मैं ब्रेड में बटर लगाकर रोस्ट कर देती हूँ , आप कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ ।”
“बस अभी गया । जरा आने वाले गेस्टों की लिस्ट तो बना लूँ । आज तो न्यूज़ पेपर भी रीड नहीं कर पाया ।”

प्रोफेसर मेहता राजकीय विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक एवं साहित्यकार हैं । वे हिंदी को समृद्ध करने वाले महान व्यक्तित्वों में गिने जाते हैं । विभिन्न सामाजिक मंचों , राज्यों और केंद्र सरकार से उन्हें अनेक पुरस्कार प्राप्त हैं ।

प्रो. मेहता- “सुनो ! आज टिफ़िन मत भिजवाना । यूनिवर्सिटी में प्रोग्राम है तो आज वही लंच की व्यवस्था की गई है ।”
“ठीक है जी ।”
“और हाँ इवनिंग में मैं आने में जरा लेट हो जाऊँगा । कुछ गेस्टों को स्टेशन ड्राप करने भी जाना पड़ सकता है । तुम राहुल और रिंकी को म्यूजिक क्लास से जल्दी ले आना ।”
“ठीक है ले आऊँगी । और कुछ प्रोफेसर साहब ??”
“और कुछ नहीं । तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है ।”
“सरप्राइज ! वो क्या है जी ?”
“हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में आज हम डिनर बाहर ही करेंगे , तो सभी टाइम से रेडी हो जाना ।”
 बाहर का डिनर सुनते ही पत्नी के चेहरों पर मुस्कान बिखर गयी ।

मेहता साहब यूनिवर्सिटी के लिए निकल गए । छह घण्टे तक कार्यक्रम चला । कार्यक्रम के प्रथम चरण में मेहमानों का स्वागत साल और श्रीफल भेंट देकर किया गया । उसके बाद अनेक हिंदी सेवकों को उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया । कार्यक्रम के मध्य में भोजन की व्यवस्था की गई थी । सभी ने बड़े चाव के साथ भोजन किया । द्वितीय चरण में विभिन्न विद्वानों के व्याख्यान रखे गए थे । कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. मेहता साहब ही कर रहे थे । जबतक कार्यक्रम का द्वितीय चरण शुरु होता , आधे लोग खिसक चुके थे । कार्यक्रम में अनेक विद्वानों ने अपना-अपना वक्तव्य दिया । कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में प्रो. मेहता साहब ने अध्यक्षीय उद्बोधन में हिंदी को कैसे समृद्ध और कैसे विश्वभाषा बनाया जाए , इस विषय पर पर लगभग एक घण्टे का व्याख्यान दिया । आज के इस कार्यक्रम के आयोजन को लेकर मेहता साहब को ख़ूब वाहवाही मिली । लोग खाने की भी तारीफ़ करते नहीं थक रहे थे ।

मेहमानों की विदाई कर मेहता साहब घर लौट आये । 

“चलो जल्दी रेडी हो जाओ । कार बाहर सड़क पर ही पार्क कर दी है ।”
“मैं तो कब से रेडी हूँ ।”
“चलो तो फिर जल्दी कार में बैठो। वैसे भी बहुत लेट हो चुके हैं ।”

सभी कार में बैठ गए ।

“आपका प्रोग्राम कैसा रहा ??”
“एकदम फर्स्टक्लास ! स्टेज से सभी गेस्टों ने ख़ूब तारीफ़ किया ।”

मेहता साहब ने सपरिवार होटल में रात का भोजन किया । और फिर सभी प्रसन्नचित घर लौट आये । इस तरह आज का हिंदी दिवस सम्पन्न हो गया ।

©अमलेश कुमार

Thursday, July 9, 2020

वे फिर लौट रहे हैं (कविता) : अमलेश कुमार

गूगल इमेज













वे फिर लौट रहे हैं
उस शहर की ओर
जिस शहर ने
एक अरसा पहले
उन्हें कर दिया था बेदख़ल

कयास लगाये जा रहे थे
बेदख़ली के बाद
वे मुड़कर भी नहीं देखेंगे
कभी शहर की ओर

मगर
उनकी मज़बूरियां
हर दौर में हावी हैं

अँधेरों का आदी भी चाहता है
अंकुरित हों
उसके जीवन में प्रकाश के बीज
और सृजित हो एक नया सवेरा

अदृश्य शत्रु ने
बिछाया था जाल
वह अँधेरा छट रहा धीरे-धीरे
और तब्दील हो रहा है
चिरपरिचित अँधेरे में

वे लौट रहे हैं
पहने
अपने सपनों का लिबास
कंधों में बचपन
और सर पर घर की जिम्मेदारियां

कुछ पल ठिठक जाते हैं
वे अपने कदमों के
पुराने
अमिट निशान देखकर
अपने साथियों के खोने का दुःख
अब भी कर देता है मन व्यथित

भयाकुल
कुछ तलाश रहें
शहरों का विकल्प
अपने ही गाँव में
और कुछ
विकल्पहीनता के शिकार
आज फिर हैं राहों में

अपना घर
अपना गाँव छोड़
रोटी की तलाश में
वे फिर लौट रहें हैं
बेरहम शहर की ओर ।

©अमलेश कुमार
   २५/०६/२०२०

Friday, May 22, 2020

हाइकु : मज़दूर व्यथा (अमलेश कुमार )


Google Image












(१)
ये मज़दूर
क्यों अपनों से दूर
क्या है क़सूर ?

(२)
खिलाने वाला
भूखा भटक रहा
खिलाये कौन ?

(३)
चाहिए उन्हें
रोटी, कपड़ा, घर
जो हैं बेघर ।

(४)
है दर्द बड़ा
वक़्त क्यों मौन खड़ा
कुछ तो कर ।

(५)
उनके दिन
फिर आयेंगे कब
राहों में हैं जो ।

(६)
वे नग्न पैर
कंघों में बचपन
बेचैन मन ।

(७)
ये राहगीर
ख़ुद को ढो रहे जो
हैं अभिशप्त ।

(८)
पैरों में आग
तपती दोपहरी
साँसें गहरी ।

(९)
दुःखित मन
राहों में उलझन
जायें किधर ?

(१०)
पेट-पीठ में
अब अंतर कहाँ
एक हो गया ।

(११)
भू-कृतिकार
हैं मारे जा रहे क्यों
बेमौत आज ।

(१२)
रक्तरंजित
हैं सड़कें-गलियां
है खौफ़नाक ।

(१३)
सदियों से है
उनके ये संघर्ष
है हर्ष कहाँ ?

(१४)
नई किरण
एक नया सवेरा
जो हो निशांत ।

(१५)
हैं नेतागण
देते सिर्फ़ भाषण
बेकाम सब ।

(१६)
व्यथित मन
देखा जो यह दृश्य
शत्रु अदृश्य ।

©अमलेश कुमार

Tuesday, May 12, 2020

अपनों के बीच : अमलेश कुमार

Google Image : पलायन करते प्रवासी मज़दूर

बदरंग जगह को
सींचा हमने अपने ख़ून-पसीने से
फुटपाथ में बसर कर
हमने यहाँ लंबी चमकदार सड़कें बनाई
फैक्ट्रियां और कारख़ाने बनाये
यहाँ उगाया हरे-भरे पेड़-पौधे
जब जाकर थोड़ी हरियाली आयी
बेघर होकर भी
सँवारा ऊँची बहुमंजिला इमारतों को
कई रतजगे कर
हमने जर्जर इमारतों की रंगतें बदली
अपने सपनों को लेकर
औरों के सपनों को दिया आकार
तब जाकर यह शहर कहलाया है

यह शहर
जिसे सदियों से सींचते आये हैं
हम अपने ख़ून पसीने से
कितना अपना-सा लगने लगा था
एक रिश्ता-सा जुड़ गया था इस शहर से
मालूम न था
एक दिन यह कर देगा इतना पराया
कि मोहताज हो जायेंगे हम
रोटी और छाया के लिए
जिनके घर थे वे अपने घरों के हो गए
हम बेघर थे और बेघर हो गए

विकल्पहीन इस जीवन से
उम्मीदों ने भी दामन तोड़ लिया है
हमारे हिस्से में सदियों से हैं
भूख-प्यास , तंगहाली
और बेमौत मारा जाना
हम अभिशप्त निकल पड़े हैं पैदल ही
इन अनजान गलियों में
अपने गाँव, अपने घर की चाह में
मालूम नहीं
कैसे और कब तक पहुँच पायेंगे अपनों तक
या बीच सफ़र में ही
ज़िन्दगी ख़त्म कर देगी यह सफ़र
इस शहर में लावारिस मौत से बेहतर
हम मर जाना चाहते हैं अपने घर में, अपनों के बीच ।

कविता- अमलेश कुमार

Saturday, May 9, 2020

रोटी


रोटी
महज़ भूख नहीं मिटाती
कभी-कभी
मौत की वजह बनकर
मिटा देती है ज़िंदगी भी

रोटी
मेहनतकशों को मजबूर करती है
नग्न पैर , भूखे-प्यासे
हजारों मील पैदल चलने
अनजान और बीहड़ रास्तों में
पगडंडियों में, सड़कों में
रेल की पटरियों में
ऊपर से गुजरती हुई मालगाड़ी
कर देती है अंग भंग
पककर गिरे हुए शहतूत के मानिंद
बिखरे देती है हाड़ मांस से बने शरीर को लोथड़ों में
बेमौत मार देती है
कभी रेल की पटरियों में तो कभी हाईवे में
फिर चेहरों की शिनाख़्त कर पाना मुमकिन नहीं होता

रोटी
जब चाहे
जाने कितनों को बना देती है
अनाथ-विधवा-विधुर
बच्चों , युवाओं और बूढ़ों के सर से
छीन लेती है जीवन का साया
रोटी और ज़िन्दगी की लड़ाई में
हर दौर में सत्ता भी रहती है शामिल
अक्सर यह लेती है बलि
अभिशप्त निम्न वर्ग की
फिर ऐसे ही बिछी मिलती हैं अनगिनत लाशें
रेल की पटरियों पर , चमचमाती सड़कों पर ।

©अमलेश कुमार

#औरंगाबाद_रेल_हादसा

Friday, May 1, 2020

मज़दूर दिवस विशेष : कविता

●लॉकडाउन और प्रवासी मज़दूर●

 प्रवासी मज़दूर , साभार- गूगल ।
जब हम
रात की गहराइयों में
मीठे सपनों में खोये थे
अपने-अपने छतों के नीचे
तब वे खुले आसमान तले
आँखों में अपने गाँव
अपने घर पहुँचने के सपने लिए
रह-रहकर गिन रहे थे तारे

जब हम
ले रहे थे स्वाद अपने घरों में
तरह तरह के व्यंजनों का
तब वे लड़ रहे थे
भूख और प्यास से
उनकी यह लड़ाई सदियों पुरानी है

जब हम
खोये थे अपनों के बीच
टीवी और स्मार्टफ़ोन में
तब वे खो चुके थे रास्ता
रास्ते की तलाश में
उनके पैरों के छाले
अब भी दे रहे हैं गवाही

जब हम
आराम फरमा रहे थे
पंखे , ए.सी. , कूलर
और गद्देदार चौपायों में
तब वे कर रहे थे बातें
कहीं चिलचिलाती धूप से
कहीं उठते , घुमड़ते
और बेमौसम बरसते बादलों से
वे चल रहे थे बहुत तेज़-तेज़
जैसे नाप लेना चाहते हों
धरती और आकाश के बीच की दूरी
निकल जाना चाहते हों वक़्त से बहुत आगे

हज़ारों मीलों के इस सफ़र में
हर मोड़ पर बदलती हवा
हँस रही थी उनकी मज़बूरियों पर ।

कविता - अमलेश कुमार

●विश्व मज़दूर दिवस को शुभकामनाएं●

Wednesday, April 29, 2020

इरफ़ान ख़ान नहीं रहे

कला प्रेमियों के लिए दुःखद ख़बर है । बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता इरफ़ान खान अब हमारे बीच नहीं रहे । अचानक तबियत ख़राब होने की वजह से उन्हें मुम्बई के कोकिलाबेन हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था ,  वे लम्बे अरसे से कैंसर से लड़ रहे थे । आज उन्होंने अपनी अंतिम साँसें ली ।
आइये उन्हें याद करते हैं -
इरफान अली खान उर्फ़ इरफान खान का जन्म 7 जनवरी 1967 को जयपुर , राजस्थान में हुआ । वे हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी फ़िल्म व टेलीविजन के एक कुशल अभिनेता रहे हैं । इरफान खान ने अभिनय की शुरुआत टेलीविजन से की । उन्होंने दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम 'चाणक्य' , 'भारत एक खोज' , और चंद्रकांता जैसे सुपरहिट धारावाहिकों में काम किया । द वारियर(2001) , मक़बूल(2003) , हासिल(2003) , द नेमसेक (2006) , डी-दे (2011) जैसी फिल्मों मे अपने अभिनय का लोहा मनवाया। 'हासिल' फिल्म के लिये उन्हे वर्ष 2004 का फ़िल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार प्राप्त हुआ ।
बॉलीवुड की 30 से ज्यादा फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके इरफान खान हॉलीवुड में भी एक चिरपरिचित नाम है । ए माइटी , स्लमडॉग मिलेनियर (2008) और द अमेजिंग स्पाइडर मैन जैसी फिल्मों में भी काम कर चुके हैं। 2008 में फ़िल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार , 2011 में भारत सरकार द्वारा इन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। 60वे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2012 में इरफ़ान खान को फिल्म 'पान सिंह तोमर' में अभिनय के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया । इरफ़ान खान की आख़िरी फ़िल्म 'अंग्रेजी मीडियम' हाल ही मैं 13 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई थी । इस फ़िल्म में इरफ़ान ने सिंगल पैरेंट की भूमिका निभाई है । हालांकि कोरोनो वायरस के फ़ैलते संक्रमण की वजह से यह फ़िल्म सिनेमाघरों में नहीं चल पाई ।
फिल्‍मों में जब इरफान खान डायलॉग बोलते थे तो लोग उनके अंदाज-ए-बयां के कायल हो जाते थे । सिनेमा प्रेमियों को इरफान खान की कमी बहुत खलेगी । हासिल, जज्‍बा, पान सिंह तोमर,  हैदर, चॉकलेट, द लंचबॉक्‍स, मदारी, डी-डे आदि फिल्‍मों में इरफान खान के डायलॉग सिनेमाप्रेमियों को बहुत भाए ।
उनके कुछ बेहतरीन डायलॉग्स-
फ़िल्म-ये साली ज़िन्दगी : "इश्‍क का एक प्रॉब्‍लम है, अगर एक की लगी तो दूसरे की भी लगनी है कभी न कभी ।"
फ़िल्म- लाइफ इन ए मेट्रो : "ये शहर हमें जितना देता है, बदले में उससे ज्‍यादा ले लेता है । "
फ़िल्म - दी-डे : "सिर्फ इन्‍सान गलत नहीं होते, वक्‍त भी गलत हो सकता है ।"
फ़िल्म - द किलर : "पिस्‍टल की ठंडी नली जब कनपटी पर लगती है ना, तब जिंदगी और मौत का फर्क समझ में आ जाता है । "
फ़िल्म- जज़्बा : "शराफत की दुनिया का किस्‍सा ही खत्‍म, अब जैसी दुनिया वैसे हम ।"
फ़िल्म- कसूर : "दौलत का नशा ... किसी भी ड्रग्स से ज्यादा खतरनाक नशा है । "
फ़िल्म - लकी कबूतर : "लड़की खूबसूरत हो और स्कूटी पर हो तो प्यार हो जाता है और लड़की बदसूरत हो और मर्सिडीज में हो तो प्यार झक मार के करना ही पड़ता है ।"

अपनी बेहतरीन अदाकारी और डायलॉग्स के लिए पहचाने जाने वाले इरफ़ान भले ही हमारे बीच नहीं रहे पर सिनेमा जगत में उनका योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा ।
ॐ शांति ।

आलेख- अमलेश कुमार
साभार- विकिपीडिया , गूगल ,विभिन्न न्यूज़ चैनल, सोशल मीडिया ।
फ़ाइल फ़ोटो - अभिनेता इरफ़ान ख़ान

Tuesday, April 28, 2020

यायावर होती हैं चींटियाँ


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यायावर होती हैं चींटियां
इनकी यायावरी ही
इन्हें बनाती है महान
भोजन और आवास की तलाश में
फिरती हैं इधर-उधर
कुछ पाने की ललक
इन्हें चढ़ा देती  है
ऊँची चट्टानों और दीवारों पर
संगठित हो
ये तालश लेती हैं भोजन
उठा लेती हैं कई गुना भार
जितना भी उपलब्ध हो
मिल बांटकर खाती हैं
जठराग्नि से कभी नहीं मरती चींटियां

लड़ाई-झगड़े से इतर
चलती रहती है हँसी-ठिठोली
करती हैं आपस में बात
सुख-दुख में
निभाती हैं एक-दूसरे का साथ
बारिश हो या हो जाड़ा
या हो फिर चिलचिलाती धूप-गर्मी
ख़ुद को ढालती हैं वक़्त के साथ
मौसम का पूर्वानुमान लगा
अंडों और बच्चों को करती हैं संरक्षित
हर दौर का डटकर करती हैं सामना

फेरोमोन
महज़ एक रसायन नहीं
इनके अनुशासन का गुप्त सूत्र है
जिसके सहारे
करती हैं अपनों का अनुसरण
चलती हैं कतारबद्ध
श्रम , संगठन और संघर्ष के
यथार्थ को चित्रित करतीं
यायावर होती हैं चींटियाँ ।

✍ अमलेश कुमार

Sunday, April 26, 2020

कोरोना का क़हर








हर गाँव, हर शहर में ये ख़बर है
हर तरफ़ अब कोरोनो का क़हर है ।

घर से मत निकलना ऐ मेरे दोस्तो
इन बहती फ़िज़ाओं में भी ज़हर है ।

कलियाँ खिली-खिली,परिंदे चहक रहे
लोग घरों में क़ैद अब शाम-ओ-सहर हैं ।

वक़्त कटता नहीं, काटना पड़ रहा है
बेचैनी का आलम अब तो हर पहर है ।

ज़िंदगी काम की चीज़ है सम्हालो इसे
बच गए तो धरती अपनी,अपना अम्बर है ।

Saturday, April 25, 2020

किताबें महज़ किताबे नहीं होतीं

किताबें महज़ किताबें नहीं होतीं
ये गुज़रे वक़्त की तस्वीर होती हैं
बेजुबां होकर भी बोलती हैं
ये दुनियाभर के रहस्य खोलती हैं

किताबें हमसे बात करती हैं
कहानियां और गीत सुनाती हैं
किताबें अहसास बनकर
हमारे चेहरे पर मुस्कान लाती हैं

किताबें सफ़र में हमसफ़र होती हैं
कभी घर तो कभी छप्पर होती हैं
किताबों को ओढ़ता, बिछाता हूँ
मैं कभी किताबों संग सो जाता हूँ

हमारे संग हँसती हैं रोती हैं
किताबें अच्छी मित्र होती हैं
हमारे जीवन का सार हैं
किताबें ख़ुद एक संसार हैं

किताबें दरिया हैं समंदर हैं
ये हमारे बाहर हैं हमारे अंदर हैं
किताबें दरख़्त हैं परिंदे हैं
ये हर गाँव हर शहर के वासिंदे हैं

ख़ुसरो की पहेली कबीर की साखी हैं
अँधों का चश्मा,लंगड़ों की बैसाखी हैं
गिरते को सम्हलना सिखाती हैं
किताबें हमेशा सही राह दिखाती हैं

माँ की ममता, पिता का दुलार हैं
किताबें सबसे अनमोल उपहार हैं
ये फूल हैं मौसम हैं बहार हैं
ये नेपथ्य हैं रंगमंच हैं क़िरदार हैं ।

कविता - अमलेश कुमार

हिंदी दिवस (लघुकथा/व्यंग्य)

भादों का महीना है । सुबह के आठ बजे रहे हैं ।  तीन दिन बाद आज सूरज ने दर्शन दिया है । हल्की हवा के साथ काले बादल सफ़र कर रहे हैं , जैसे अब कुछ...