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वे फिर लौट रहे हैं
उस शहर की ओर
जिस शहर ने
एक अरसा पहले
उन्हें कर दिया था बेदख़ल
कयास लगाये जा रहे थे
बेदख़ली के बाद
वे मुड़कर भी नहीं देखेंगे
कभी शहर की ओर
मगर
उनकी मज़बूरियां
हर दौर में हावी हैं
अँधेरों का आदी भी चाहता है
अंकुरित हों
उसके जीवन में प्रकाश के बीज
और सृजित हो एक नया सवेरा
अदृश्य शत्रु ने
बिछाया था जाल
वह अँधेरा छट रहा धीरे-धीरे
और तब्दील हो रहा है
चिरपरिचित अँधेरे में
वे लौट रहे हैं
पहने
अपने सपनों का लिबास
कंधों में बचपन
और सर पर घर की जिम्मेदारियां
कुछ पल ठिठक जाते हैं
वे अपने कदमों के
पुराने
अमिट निशान देखकर
अपने साथियों के खोने का दुःख
अब भी कर देता है मन व्यथित
भयाकुल
कुछ तलाश रहें
शहरों का विकल्प
अपने ही गाँव में
और कुछ
विकल्पहीनता के शिकार
आज फिर हैं राहों में
अपना घर
अपना गाँव छोड़
रोटी की तलाश में
वे फिर लौट रहें हैं
बेरहम शहर की ओर ।
©अमलेश कुमार
२५/०६/२०२०
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