Tuesday, May 12, 2020

अपनों के बीच : अमलेश कुमार

Google Image : पलायन करते प्रवासी मज़दूर

बदरंग जगह को
सींचा हमने अपने ख़ून-पसीने से
फुटपाथ में बसर कर
हमने यहाँ लंबी चमकदार सड़कें बनाई
फैक्ट्रियां और कारख़ाने बनाये
यहाँ उगाया हरे-भरे पेड़-पौधे
जब जाकर थोड़ी हरियाली आयी
बेघर होकर भी
सँवारा ऊँची बहुमंजिला इमारतों को
कई रतजगे कर
हमने जर्जर इमारतों की रंगतें बदली
अपने सपनों को लेकर
औरों के सपनों को दिया आकार
तब जाकर यह शहर कहलाया है

यह शहर
जिसे सदियों से सींचते आये हैं
हम अपने ख़ून पसीने से
कितना अपना-सा लगने लगा था
एक रिश्ता-सा जुड़ गया था इस शहर से
मालूम न था
एक दिन यह कर देगा इतना पराया
कि मोहताज हो जायेंगे हम
रोटी और छाया के लिए
जिनके घर थे वे अपने घरों के हो गए
हम बेघर थे और बेघर हो गए

विकल्पहीन इस जीवन से
उम्मीदों ने भी दामन तोड़ लिया है
हमारे हिस्से में सदियों से हैं
भूख-प्यास , तंगहाली
और बेमौत मारा जाना
हम अभिशप्त निकल पड़े हैं पैदल ही
इन अनजान गलियों में
अपने गाँव, अपने घर की चाह में
मालूम नहीं
कैसे और कब तक पहुँच पायेंगे अपनों तक
या बीच सफ़र में ही
ज़िन्दगी ख़त्म कर देगी यह सफ़र
इस शहर में लावारिस मौत से बेहतर
हम मर जाना चाहते हैं अपने घर में, अपनों के बीच ।

कविता- अमलेश कुमार

No comments:

हिंदी दिवस (लघुकथा/व्यंग्य)

भादों का महीना है । सुबह के आठ बजे रहे हैं ।  तीन दिन बाद आज सूरज ने दर्शन दिया है । हल्की हवा के साथ काले बादल सफ़र कर रहे हैं , जैसे अब कुछ...