Friday, May 22, 2020

हाइकु : मज़दूर व्यथा (अमलेश कुमार )


Google Image












(१)
ये मज़दूर
क्यों अपनों से दूर
क्या है क़सूर ?

(२)
खिलाने वाला
भूखा भटक रहा
खिलाये कौन ?

(३)
चाहिए उन्हें
रोटी, कपड़ा, घर
जो हैं बेघर ।

(४)
है दर्द बड़ा
वक़्त क्यों मौन खड़ा
कुछ तो कर ।

(५)
उनके दिन
फिर आयेंगे कब
राहों में हैं जो ।

(६)
वे नग्न पैर
कंघों में बचपन
बेचैन मन ।

(७)
ये राहगीर
ख़ुद को ढो रहे जो
हैं अभिशप्त ।

(८)
पैरों में आग
तपती दोपहरी
साँसें गहरी ।

(९)
दुःखित मन
राहों में उलझन
जायें किधर ?

(१०)
पेट-पीठ में
अब अंतर कहाँ
एक हो गया ।

(११)
भू-कृतिकार
हैं मारे जा रहे क्यों
बेमौत आज ।

(१२)
रक्तरंजित
हैं सड़कें-गलियां
है खौफ़नाक ।

(१३)
सदियों से है
उनके ये संघर्ष
है हर्ष कहाँ ?

(१४)
नई किरण
एक नया सवेरा
जो हो निशांत ।

(१५)
हैं नेतागण
देते सिर्फ़ भाषण
बेकाम सब ।

(१६)
व्यथित मन
देखा जो यह दृश्य
शत्रु अदृश्य ।

©अमलेश कुमार

Tuesday, May 12, 2020

अपनों के बीच : अमलेश कुमार

Google Image : पलायन करते प्रवासी मज़दूर

बदरंग जगह को
सींचा हमने अपने ख़ून-पसीने से
फुटपाथ में बसर कर
हमने यहाँ लंबी चमकदार सड़कें बनाई
फैक्ट्रियां और कारख़ाने बनाये
यहाँ उगाया हरे-भरे पेड़-पौधे
जब जाकर थोड़ी हरियाली आयी
बेघर होकर भी
सँवारा ऊँची बहुमंजिला इमारतों को
कई रतजगे कर
हमने जर्जर इमारतों की रंगतें बदली
अपने सपनों को लेकर
औरों के सपनों को दिया आकार
तब जाकर यह शहर कहलाया है

यह शहर
जिसे सदियों से सींचते आये हैं
हम अपने ख़ून पसीने से
कितना अपना-सा लगने लगा था
एक रिश्ता-सा जुड़ गया था इस शहर से
मालूम न था
एक दिन यह कर देगा इतना पराया
कि मोहताज हो जायेंगे हम
रोटी और छाया के लिए
जिनके घर थे वे अपने घरों के हो गए
हम बेघर थे और बेघर हो गए

विकल्पहीन इस जीवन से
उम्मीदों ने भी दामन तोड़ लिया है
हमारे हिस्से में सदियों से हैं
भूख-प्यास , तंगहाली
और बेमौत मारा जाना
हम अभिशप्त निकल पड़े हैं पैदल ही
इन अनजान गलियों में
अपने गाँव, अपने घर की चाह में
मालूम नहीं
कैसे और कब तक पहुँच पायेंगे अपनों तक
या बीच सफ़र में ही
ज़िन्दगी ख़त्म कर देगी यह सफ़र
इस शहर में लावारिस मौत से बेहतर
हम मर जाना चाहते हैं अपने घर में, अपनों के बीच ।

कविता- अमलेश कुमार

Saturday, May 9, 2020

रोटी


रोटी
महज़ भूख नहीं मिटाती
कभी-कभी
मौत की वजह बनकर
मिटा देती है ज़िंदगी भी

रोटी
मेहनतकशों को मजबूर करती है
नग्न पैर , भूखे-प्यासे
हजारों मील पैदल चलने
अनजान और बीहड़ रास्तों में
पगडंडियों में, सड़कों में
रेल की पटरियों में
ऊपर से गुजरती हुई मालगाड़ी
कर देती है अंग भंग
पककर गिरे हुए शहतूत के मानिंद
बिखरे देती है हाड़ मांस से बने शरीर को लोथड़ों में
बेमौत मार देती है
कभी रेल की पटरियों में तो कभी हाईवे में
फिर चेहरों की शिनाख़्त कर पाना मुमकिन नहीं होता

रोटी
जब चाहे
जाने कितनों को बना देती है
अनाथ-विधवा-विधुर
बच्चों , युवाओं और बूढ़ों के सर से
छीन लेती है जीवन का साया
रोटी और ज़िन्दगी की लड़ाई में
हर दौर में सत्ता भी रहती है शामिल
अक्सर यह लेती है बलि
अभिशप्त निम्न वर्ग की
फिर ऐसे ही बिछी मिलती हैं अनगिनत लाशें
रेल की पटरियों पर , चमचमाती सड़कों पर ।

©अमलेश कुमार

#औरंगाबाद_रेल_हादसा

Friday, May 1, 2020

मज़दूर दिवस विशेष : कविता

●लॉकडाउन और प्रवासी मज़दूर●

 प्रवासी मज़दूर , साभार- गूगल ।
जब हम
रात की गहराइयों में
मीठे सपनों में खोये थे
अपने-अपने छतों के नीचे
तब वे खुले आसमान तले
आँखों में अपने गाँव
अपने घर पहुँचने के सपने लिए
रह-रहकर गिन रहे थे तारे

जब हम
ले रहे थे स्वाद अपने घरों में
तरह तरह के व्यंजनों का
तब वे लड़ रहे थे
भूख और प्यास से
उनकी यह लड़ाई सदियों पुरानी है

जब हम
खोये थे अपनों के बीच
टीवी और स्मार्टफ़ोन में
तब वे खो चुके थे रास्ता
रास्ते की तलाश में
उनके पैरों के छाले
अब भी दे रहे हैं गवाही

जब हम
आराम फरमा रहे थे
पंखे , ए.सी. , कूलर
और गद्देदार चौपायों में
तब वे कर रहे थे बातें
कहीं चिलचिलाती धूप से
कहीं उठते , घुमड़ते
और बेमौसम बरसते बादलों से
वे चल रहे थे बहुत तेज़-तेज़
जैसे नाप लेना चाहते हों
धरती और आकाश के बीच की दूरी
निकल जाना चाहते हों वक़्त से बहुत आगे

हज़ारों मीलों के इस सफ़र में
हर मोड़ पर बदलती हवा
हँस रही थी उनकी मज़बूरियों पर ।

कविता - अमलेश कुमार

●विश्व मज़दूर दिवस को शुभकामनाएं●

हिंदी दिवस (लघुकथा/व्यंग्य)

भादों का महीना है । सुबह के आठ बजे रहे हैं ।  तीन दिन बाद आज सूरज ने दर्शन दिया है । हल्की हवा के साथ काले बादल सफ़र कर रहे हैं , जैसे अब कुछ...